Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद

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भगवान उन्हें सदा सुखी रखें कि हम अभागों पर इतनी दया करती हैं। -कतु विनय के कमरे में अभी तक सफाई नहीं हुई। नया कम्बल पड़ा हुआ है, छुआ तक नहीं गया। कुरता ज्यों-का-त्यों तह किया हुआ रखा है, वह अपना पुराना कुरता ही पहने हुए है। उसके शरीर के एक-एक रोम से, मस्तिष्क के एक-एक अणु से, हृदय की एक-एक गति से यही आवाज आ रही है-सोफिया! उसके सामने क्योंकर जाऊँगा। उसने सोचना शुरू किया-सोफिया यहाँ क्यों आ रही है? क्या मेरा अपमान करना चाहती है? सोफी, जो दया और प्रेम की सजीव मूर्ति थी, क्या वह मुझे क्लार्क के सामने बुलाकर पैरों से कुचलना चाहती है? इतनी निर्दयता, और मुझ जैसे अभागे पर, जो आप ही अपने दिनों को रो रहा है! नहीं, वह इतनी वज्र-हृदया नहीं है, उसका हृदय इतना कठोर नहीं हो सकता। यह सब मि. क्लार्क की शरारत है, वह मुझे सोफी के सामने लज्जित करना चाहते हैं; पर मैं उन्हें यह अवसर न दूँगा, मैं उनके सामने जाऊँगा ही नहीं, मुझे बलात् ले जाए; जिसका जी चाहे। क्यों बहाना करूँ कि मैं बीमार हूँ। साफ कह दूँगा, मैं वहाँ नहीं जाता। अगर जेल का यह नियम है, तो हुआ करे, मुझे ऐसे नियम की परवाह नहीं, जो बिलकुल निरर्थक है। सुनता हँ, दोनों यहाँ एक सप्ताह तक रहना चाहते हैं, क्या प्रजा को पीस ही डालेंगे? अब भी तो मुश्किल से आधो आदमी बच रहे होंगे, सैकड़ों निकाल दिए गए, सैकड़ों जेल में ठूँस दिए गए, क्या इस कस्बे को बिलकुल मिट्टी में मिला देना चाहते हैं? सहसा जेल का दारोगा आकर कर्कश स्वर में बोला-तुमने कमरे की सफाई नहीं की! अरे, तुमने तो अभी कुरता भी नहीं बदला, कम्बल तक नहीं बिछाया! तुम्हें हुक्म मिला या नहीं? विनय-हुक्म तो मिला, मैंने उसका पालन करना आवश्यक नहीं समझा। दारोगा ने और गरम होकर कहा-इसका यही नतीजा होगा कि तुम्हारे साथ भी और कैदियों का-सा सलूक किया जाए। हम तुम्हारे साथ अब तक शराफत का बर्ताव करते आए हैं, इसलिए कि तुम एक प्रतिष्ठित रईस के लड़के हो और यहाँ विदेश में आ पड़े हो। पर मैं शरारत नहीं बर्दाश्त कर सकता।

विनय-यह बतलाइए कि मुझे पोलिटिकल एजेंट के सामने तो न जाना पड़ेगा?
दारोगा-और यह कम्बल और कुरता किसलिए दिया गया है; कभी और भी किसी ने यहाँ नया कम्बल पाया है? तुम लोगों के तो भाग्य खुल गए।
विनय-अगर आप मुझ पर इतनी रियायत करें कि मुझे साहब के सामने जाने पर मजबूर न करें, तो मैं आपका हुक्म मानने को तैयार हूँ।
दारोगा-कैसे बेसिर-पैर की बातें करते हो जी, मेरा कोई अख्तियार है? तुम्हें जाना पड़ेगा।
विनय ने बड़ी नम्रता से कहा-मैं आपका यह एहसान कभी न भूलँगा। किसी दूसरे अवसर पर दारोगाजी शायद जामे से बाहर हो जाते, पर आज कैदियों को खुश रखना जरूरी था।
बोले-मगर भाई, यह रिआयत करनी मेरी शक्ति से बाहर है। मुझ पर न जाने क्या आफत आ जाए। सरदार साहब मुझे कच्चा ही खा जाएँगे, मेम साहब को जेलों को देखने की धुन है। बड़े साहब तो कर्मचारियों के दुश्मन हैं, मेम साहब उनसे भी बढ़-चढ़कर हैं। सच पूछो तो जो कुछ हैं, वह मेम साहब ही हैं। साहब तो उनके इशारों के गुलाम हैं। कहीं वह बिगड़ गईं, तो तुम्हारी मियाद तो दूनी हो ही जाएगी, हम भी पिस जाएँगे।
विनय-मालूम होता है, मेम साहब का बड़ा दबाव है।
दारोगा-दबाव! अजी, यह कहो कि मेम साहब ही पोलिटिकल एजेंट हैं। साहब तो केवल हस्ताक्षर करने-भर को हैं। नजर-भेंट सब मेम साहब के ही हाथों में जाती है।
विनय-आप मेरे साथ इतनी रियाअत कीजिए कि मुझे उनके सामने जाने के लिए मजबूर न कीजिए। इतने कैदियों में एक आदमी की कमी जान ही न पड़ेगी। हाँ, अगर वह मुझे नाम लेकर बुलाएँगी, तो मैं चला जाऊँगा।
दारोगा-सरदार साहब मुझे जीता निगल जाएँगे।
विनय-मगर करना आपको यही पड़ेगा। मैं अपनी खुशी से कदापि न जाऊँगा।
दारोगा-मैं बुरा आदमी हूँ, मुझे दिक मत करो। मैंने इसी जेल में बड़े-बड़ों की गरदनें ढीली कर दी हैं।
विनय-अपने को कोसने का आपको अधिकार है; पर आज जानते हैं, मैं जब्र के सामने सिर झुकानेवाला नहीं हूँ।
दारोगा-भाई, तुम विचित्र प्राणी हो, उसके हुक्म से सारा शहर खाली कराया जा रहा है, और फिर भी अपनी जिद किए जाते हो। लेकिन तुम्हें अपनी जान भारी है, मुझे अपनी जान भारी नहीं है।
विनय-क्या शहर खाली कराया जा रहा है? यह क्यों?
दारोगा-मेम साहब का हुक्म है, और क्या, जसवंतनगर पर उनका कोप है। जब से उन्होंने यहाँ की वारदातें सुनी हैं, मिजाज बिगड़ गया है। उनका वश चले तो इसे खुदवाकर फेंक दें। हुक्म हुआ है कि एक सप्ताह तक कोई जवान आदमी कस्बे में न रहने पाए। भय है कि कहीं उपद्रव न हो जाए, सदर से मदद माँगी गई है।
दारोगा ने स्थिति को इतना बढ़ाकर बयान किया, इससे उनका उद्देश्य विनयसिंह पर प्रभाव डालना था और उनका उद्देश्य पूरा हो गया। विनयसिंह को चिंता हुई कि कहीं मेरी अवज्ञा से क्रुध्द होकर अधिकारियों ने मुझ पर और भी अत्याचार करने शुरू किए और जनता को यह खबर मिली, तो वह बिगड़ खड़ी होगी और उस दशा में मैं उन हत्याओं के पाप का भागी ठहरूँगा। कौन जाने, मेरे पीछे मेरे सहयोगियों ने लोगों को और भी उभार रखा हो, उनमें उद्दंड प्रकृति के युवकों की कमी नहीं है। नहीं, हालत नाजुक है। मुझे इस वक्त धैर्य से काम लेना चाहिए।
दारोगा से पूछा-मेम साहब यहाँ किस वक्त आएँगी?
दारोगा-उनके आने का कोई ठीक समय थोड़े ही है। धोखा देकर किसी ऐसे वक्त आ पहुँचेंगी, जब हम लोग गाफिल पड़े होंगे। इसी से तो कहता हूँ कि कमरे की सफाई कर डालो; कपड़े बदल लो; कौन जाने, आज ही आ जाएँ।
विनय-अच्छी बात है; आप जो कुछ कहते हैं, सब कर लूँगा। अब आप निश्ंचित हो जाएँ।
दारोगा-सलामी के वक्त आने से इनकार तो न करोगे?
विनय-जी नहीं; आप मुझे सबसे पहले आँगन में मौजूद पाएँगे।
दारोगा-मेरी शिकायत तो न करोगे?
विनय-शिकायत करना मेरी आदत नहीं, इसे आप खूब जानते हैं।
दारोगा चला गया। अँधेरा हो चला था। विनय ने अपने कमरे में झाड़ू लगाई, कपड़े बदले, कम्बल बिछा दिया। वह कोई ऐसा काम नहीं करना चाहते थे, जिससे किसी की दृष्टि उनकी ओर आकृष्ट हो; वह अपनी निरपेक्षता से हुक्काम के संदेहों को दूर कर देना चाहते थे। भोजन का समय आ गया, पर मिस्टर क्लार्क ने पदार्पण न किया। अंत में निराश होकर दारोगा ने जेल के द्वार बंद कराए और कैदियों को विश्राम करने का हुक्म दिया। विनय लेटे, तो सोचने लगे-सोफी का यह रूपांतर क्योंकर हो गया? वही लज्जा और विनय की मूर्ति, वही सेवा और त्याग की प्रतिमा आज निरंकुशता की देवी बनी हुई है! उसका हृदय कितना कोमल था, कितना दयाशील, उसके मनोभाव कितने उच्च और पवित्र थे, उसका स्वभाव कितना सरल था, उसकी एक-एक दृष्टि हृदय पर कालिदास की एक-एक उपमा की-सी चोट करती थी, उसके मुँह से जो शब्द निकलता था, वह दीपक की ज्योति की भाँति चित्ता को आलोकित कर देता था। ऐसा मालूम होता था, केवल पुष्प-सुगंध से उसकी सृष्टि हुई है, कितना निष्कपट, कितना गम्भीर, कितना मधुर सौंदर्य था! वह सोफी अब इतनी निर्दय हो गई है!
चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था, मानो कोई तूफान आनेवाला है। आज जेल के आँगन में दारोगा के जानवर न बँधो थे, न बरामदों में घास के ढेर थे। आज किसी कैदी को जेल-कर्मचारियों के जूठे बरतन नहीं माँजने पड़े, किसी ने सिपाहियों की चम्पी नहीं की। जेल के डॉक्टर की बुढ़िया महरी आज कैदियों को गालियाँ नहीं दे रही थी और दफ्तर में कैदियों से मिलनेवाले संबंधियों के नजरानों का बाँट-बखरा न होता था। कमरा में दीपक थे, दरवाजे खुले रखे गए थे। विनय के मन में प्रश्न उठा, क्यों न भाग चलूँ? मेरे समझाने से कदाचित् लोग शांत हो जाएँ। सदर सेना आ रही है, ज़रा-सी बात पर विप्लव हो सकता है। यदि मैं शांतिस्थापना करने में सफल हुआ, तो वह मेरे इस अपराध का प्रायश्चित्ता होगा।
उन्होंने दबी हुई नजरों से जेल की ऊँची दीवारों को देखा, कमरे से बाहर निकलने की हिम्मत न पड़ी। किसी ने देख लिया तो? लोग यही समझेंगे कि मैं जनता को भड़काने के इरादे से भागने की चेष्टा कर रहा था। इस हैस-बैस में रात कट गई। अभी कर्मचारियों की नींद भी न खुली थी कि मोटर की आवाज ने आगंतुक की सूचना दी। दारोगा, डॉक्टर, वार्डर, चौकीदार हड़बड़ाकर निकल पड़े। पहली घंटी बजी, कैदी मैदान में निकल आए, उन्हें कतारों में खड़े होने का हुक्म दिया गया, और उसी क्षण सोफिया, मिस्टर क्लार्क और सरदार नीलकंठ जेल में दाखिल हुए। सोफिया ने आते ही कैदियों पर निगाह डाली। उस दृष्टि में प्रतीक्षा न थी, उत्सुकता न थी, भय था, विकलता थी, अशांति थी। जिस आकांक्षा ने उसे बरसों रुलाया था, जो उसे यहाँ तक खींच लाई थी, जिसके लिए उसने अपने प्राणप्रिय सिध्दांतों का बलिदान किया था, उसी को सामने देखकर वह इस समय कातर हो रही थी, जैसे कोई परदेशी बहुत दिनों के बाद अपने गाँव में आकर अंदर कदम रखते हुए डरता है कि कहीं कोई अशुभ समाचार कानों में न पड़ जाए।
सहसा उसने विनय को सिर झुकाए खड़े देखा। हृदय में प्रेम का एक प्रचंड आवेग हुआ, नेत्र में अंधोरा छा गया। घर वही था, पर उजड़ा हुआ, घास-पात से ढंका हुआ, पहचानना मुश्किल था। वह प्रसन्न मुख कहाँ था, जिस पर कवित्व की सरलता बलि होती थी। वह पुरुषार्थ का-सा विशाल वृक्ष कहाँ था। सोफी के मन में अनिवार्य इच्छा हुई कि विनय के पैरों पर गिर पड़ूँ, उसे अश्रु-जल से धोऊँ, उसे गले से लगाऊँ। अकस्मात् विनयसिंह मूख्रच्छत होकर गिर पड़े, एक आर्तधवनि थी, जो एक क्षण तक प्रवाहित होकर शोकावेग से निश्शब्द हो गई।
सोफी तुरंत विनय के पास जा पहुँची। चारों तरफ शोर मच गया। जेल का डॉक्टर दौड़ा। दारोगा पागलों की भाँति उछल-कूद मचाने लगा-अब नौकरों की खैरियत नहीं। मेम साहब पूछेंगी, इसकी हालत इतनी नाजुक थी, तो इसे चिकित्सालय में क्यों नहीं रखा; बड़ी मुसीबत में फँसा। इस भले आदमी को भी इसी वक्त बेहोश होना था। कुछ नहीं, इसने दम साधा है, बना हुआ है, मुझे तबाह करने पर तुला हुआ है। बच्चा, जाने दो मेम साहब को, तो देखना, तुम्हारी ऐसी खबर लेता हूँ कि सारी बेहोशी निकल जाए, फिर कभी बेहोश होने का नाम ही न लो। यह आखिर इसे हो क्या गया, किसी कैदी को आज तक यों मूख्रच्छत होते नहीं देखा। हाँ, किस्सों में लोगों को बात-बात में बेहोश हो जाते पढ़ा है। मिर्गी का रोग होगा और क्या। दारोगा तो अपनी जान की खैर मना रहा था, उधर सरदार साहब मिस्टर क्लार्क से कह रहे थे-यह वही युवक है, जिसने रियासत में ऊधम मचा रखा है।
सोफी ने डॉक्टर से घुड़ककर कहा, हट जाओ, और विनय को उठवाकर दफ्तर में लाई। आज वहाँ बहुमूल्य गलीचे बिछे हुए थे। चाँदी की कुर्सियाँ थीं, मेज पर जरी का मेजपोश था, उस पर सुंदर गुलदस्ते थे। मेज पर जलपान की सामग्रियां चुनी हुई थीं। तजवीज थी कि निरीक्षण के बाद साहब यहाँ नाश्ता करेंगे। सोफी ने विनय को कालीन के फर्श पर लिटा दिया और सब आदमियों को वहाँ से हट जाने का इशारा किया।

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